भारतीय अंक
वर्तमान समय में सारा संसार जिन १ से लेकर ९ तक के अंकों के सहारे विज्ञान और गणित आदि की गणनायें करता है वे भारतीय अंक ही हैं।
यूरोप में बारहवीं शताब्दी तक रोमन अंकों का प्रयोग होता था। रोमन अंक प्रणाली में केवल सात अंक हैं, जो अक्षरों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। ये अक्षरांक हैं- I (एक), V (पांच), L (पचास), C (सौ), D (पांच सौ) तथा M (एक हजार)। इन्हीं अंको के जोड़ ने घटाने से कोई भी संख्या लिखी जाती है। उदाहरण के लिए अगर तीन लिखना है तो एक का चिन्ह तीन बार लिख दिया III । आठ लिखना है तो पांच के दायीं तरफ तीन एक-एक के चिन्ह लिखकर जोड़ दिए और VIII (आठ) हो गया। यह प्रणाली इतनी कठिन और उलझी हुई है कि जब बारहवीं शताब्दी में यूरोप का भारतीय अंक प्रणाली से परिचय हुआ तो उसने उसे स्वीकार ही नहीं किया, अपितु एकदम अपना लिया। यूरोप में कुछ शताब्दियों बाद जो वैज्ञानिक औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसके मूल में भारतीय अंक गणना का ही योगदान है।
भारत ने गणना
हेतु नौ अंकों
तथा शून्य का
अविष्कार
किया था। यही
नहीं, अंकों के
स्थानीय मान (प्लेस
वेल्यू) का भी
आविष्कार
भारत में ही
हुआ। शून्य का
कोई मान (मूल्य)
नहीं है
किन्तु उसे
अगर एक अंक के
दाहिनी ओर लिख
दिया जाए तो वह
दस इंगित
करेगा। यदि
दाहिनी ओर एक
और शून्य बढ़ा
दिया जाए, तो
यह संख्या सौ
हो जाएगी। इस
तरह अंक के
दाहिनी ओर
लिखे जाने पर
मूल्यहीन
शून्य, मूल्य
प्राप्त कर
लेता है।
संक्षेप में
स्थान के
अनुसार अंकों
के मूल्य
निर्धारण के
सिद्धान्त को
स्थानीय मान
कहते हौं। इस
प्रणाली से
किसी भी
संख्या को
लिखना बहुत
आसान है। जिस
तीन सौ चवालीस
को हम रोमन
प्रणाली में CCC XXXX
IV लिखते हैं,
उसे भारतीय
विधि से ३४४
लिख सकते हौं।
इस माध्यम से
बड़ी से बड़ी
संख्या बिना
किसी कठिनाई
के संक्षेप
में लिखी जा
सकती है।
भारतीय गणित
ने दशमलव
प्रणाली का भी
आविष्कार
किया। भारत
में दशमलव
अंकों का
सर्वप्रथम
प्रयोग
आर्यभट्ट
प्रथम (४९९ ई.)
द्वारा मिलता
है। संभव है कि
इसका
आविष्कार
इससे भी बहुत
पहले हुआ हो।
किन्त यूरोप
में दशमलव अंक
का सामान्य
प्रचार
सत्रहवीं
शताब्दी में
हुआ, जिसका
ज्ञान
निश्चित ही
उसने भारत से
प्राप्त किया
था। ये भारतीय
गणितीय
सिद्धान्त
यूरोप को अरब
के माध्यम से
प्राप्त हुए
थे।
अरबी भाषा में
इन अंकों को हिन्दसा
कहते हौं।
हिन्दसा
अर्थात्
हिन्द से
प्राप्त।
अरबी लिपि
दाएं से बाएं
लिखी जाती है,
किन्तु अरबी
में अंक बायें
से दायें लिखे
जाते हैं। यह
भी इस बात का
प्रमाण है कि
अरबी अंकों की
उत्पत्ति
अरबी भाषा के
साथ अरब देश
में नहीं हुई,
अपितु ये बाहर
से आयात किए गए
हैं। अरबों के
माध्यम से जब
यह भारतीय अंक
यूरोप पहुचे
तो उन्ह लगा कि
ये अंक मूल रूप
से अरबों
द्वारा ही
आविष्कार किए
गए हैं। अतएव
आज भी यूरोप
में एक से नौ
एवं शून्य के
भारतीय अंकों
को ‘एरेबिक
न्युमरल’(अरबी
गणनांक) कहते
हैं। मोहम्मद
साहब के पूर्व
अरब देश में जिहालिया
अर्थात्
अज्ञान का युग
कहा जाता है।
ज्ञान-विज्ञान
में वहां कोई
प्रगति नहीं
हुई थी। पूरे
कुरैश कबीले
में, जिससे
मोहम्मद साहब
का संबंध था,
केवल सत्रह
लोग कुछ लिखना
जानते थे।
किन्त इस्लाम
की स्थापना के
साथ अरब
साम्राज्य का
विस्तार
पिश्चम में
स्पेन और
उत्तरी
अफ्रीका तथा
पूर्व में
भारत की सीमा
तक हो गया। जो
देश पराजित
होकर अरब
साम्राज्य
में शामिल हुए,
उनके आर्थिक
प्रशासन के
लिए अरबी गणना-प्रणाली,
जो कि अत्यन्त
प्रारंभिक
स्तर की थी,
पर्याप्त
सिद्ध नहीं
हुई। अतएव
विवश होकर
अरबी शासकों
को विजित
जातियों के
अंकों का
प्रयोग करना
पड़ा। खलीफा
अल मंसूर (सन
७५३-७७४) के
राज्यकाल के
समय में सिन्ध
से कुछ दूत
बगदाद गए,
जिनमें कुछ
विद्वान भी थे,
वे अपने साथ
ब्रह्मगुप्त
रचित
ब्राह्मस्फट
सिद्धान्त
एवम् खण्ड
खद्यक नामक
ग्रंथ भी अन्य
ग्रंथों के
साथ बगदाद ले
गए। इन
विद्वानों की
सहायता से अल-फजारी
एवं याकूब खां
तारिक ने इनका
अरबी में
अनुवाद किया,
जिसका अरबी
गणित पर विशेष
प्रभाव पड़ा।
अरब लोगों में
भारतीय ज्ञान,
विज्ञान और
कला के प्रति
जो उस समय
सम्मान था, वह
अल जहीज की
पुस्तिका- फकिर
असम-सूदन अल-ल
बिनद में
लिखा हैः जहां
तक भारतीयों
का संबंध है,
वे नक्षत्र
ज्ञान और गणित
में पहले
स्थान पर है।
उनकी लिपि
दुनिया की सभी
भाषाओं की
ध्वनियां लिख
सकती है, इसी
तरह उनके अंक
हर प्रकार की
संख्या... भारत
में ही
नक्षत्रा की
गणना
प्रारम्भ हुई,
जिसे बाद में
अन्य देशों ने
उससे लिया।
पीसा (इटली)
नगर के
लियोनाडो ने,
जिसने किसी मूर
(अरबी) से
हिन्दू गणित
सीखा, और सन
१२०२ में लिबर
एवैकी नामक
पुस्तक लिखी,
जिसका
संशोधित
संस्करण सन
१२२८ में आया।
इसमें उसने
हिन्दू अंकों
और उनकी
उपयोगिता को
समझाया।
अलेक्जड र डे
विलाडी (सन
१२४०) और जान
आक हेलीफाक्स (सन
१२५०) की
पुस्तकों ने
भी ‘हिन्दू
अंक प्रणाली’
का प्रसार
किया।
प्रारम्भ में
इसका विरोध
हुआ, किन्त
पन्द्रहवीं
शताब्दी के
मध्य तक यूरोप
के सभी देशों
ने इनको
स्वीकार कर
लिया था।
अनेक गणितज्ञों एवं अन्य विचारकों ने आधुनिक सभ्यता के विकास में हिन्दू अंकों के योगदान की भूरि-भूरि प्रशंशा की है। इसके आविष्कार को एक महान उपलब्धि माना जाता है।